Hindi story ( काबिल बिटिया)

काबिल बिटिया






आज भी मैं उसी बस स्टैंड पर खड़ी ९ नंबर बस का इंतज़ार रही हूँ या यूं कह लीजिये की उसका इंतज़ार कर रही हूँ। एक ना ख़तम होने वाला लम्बा इंतज़ार...................................................
जो चढ़ते सूरज के साथ बुलंद होता जाता है और एक बेतहाश हार के साथ ढल जाता है फिर नयी उम्मीद में अगली सुबह तमतमाने को। वो सूरज है सिर्फ नाम से नहीं गुण से भी। आकर्षक सुन्दर और तेजस्वी। सूरज की तरह ही लोगो के जीवन में उम्मीद की किरण जगाने वाला। पर मैं निशा हूँ। शायद मेरे माता पिता की तीसरी संतान भी लड़की होने का दुःख मेरे नाम में ज़ाहिर हो गया। हालांकि उन्होंने कभी प्रकट नही किया पर कभी कभी व्यवहार शब्दों से ज्यादा भाव बोधक होते हैं। मैं उनकी आखिरी उम्मीद थी जो उन्हें उनकी कुंडली में कालसर्प दोष की तरह बैठे रिश्तेदारों के तंज़ो से मुक्ति दिलाती। उनकी काबिल बेटी बनकर मैं शायद उनका दुःख कम कर सकती थी।अपनी बहनों की शादी में ख़र्च राशि को सूत समेत वापस ला सकती थी। और उन बूढ़ी आँखों के कई जर्जर सपनों को पूरा कर सकती थी। कभी कभी काबीलियत स्वयं की इच्छाओ का अंत कर देता हैं। मेरी इच्छाओं के अंत की शुरुआत मेरे इंजिनीरिंग कॉलेज में दाखिले से हो गयी थी।पिताजी ने मेरा दाखिला शहर के ही एक इंजिनीरिंग कॉलेज में करा दिया। मैं इतिहास खगालना चाहती पर पिताजी अपनी किस्मत के पुर्जे मुझ से ठीक करना चाहते थे। मैंने समझौता किया और पूरी ईमानदारी से उनकी उम्मीद पूरी करने को चल पड़ी।
सूरज से मेरी पहली मुलाकात इसी बस स्टैंड पर हुयी थी। वो मुलाकात कम मदद ज्यादा थी। मदद यूं कि यदि उसने मेरा हाथ खींचा न होता तो मैं शायद उस सरकारी बस के पहियों के नीचे मेरी तरकारी बन गयी होती जो अगले दिन के अखबारों में परोसी जा रही होती।
"मदद के लिए शुक्रिया" मैंने लगभग अपने आप को उसकी बाहों से खींचते हुए कहा।
"मदद !! मदद कैसी भाई। मैंने तो कल कॉलेज में होने जा रही शोक सभा रुकवा दी।" वो बोला और हम दोनों खिलखिला कर हँस पड़े। सूरज और मैं एक ही कॉलेज में पढ़ते है ये बात मुझे उसी दिन पता चली। वो मैकेनिकल इंजीनियरिंग कर रहा था और मैं कंप्यूटर साइंस पढ़ रही थी। उस दिन की घटना के बाद हम दोनों लगभग साथ साथ ही कॉलेज आते जाते थे। मेरी उसकी दोस्ती घनिष्ठ हो रही थी। मुझे उसका साथ, उसकी बात, उसका मज़ाक करना, भीड़ में मेरा हाथ पकड़ना , मेरी बाते सुनना, मुझे समझाना सब बहुत अच्छा लगता था। उसका साथ मुझे जीवन का हर दंश जो मैं झेल रही होती थी भुला देता था। मैं ये भी भूल जाती थी कि मैं हर सुबह घर से एक काबिल बेटी बनने के लिए निकलती हूँ , पर शाम होते होते मैं सूरज के रंग में रंग चुकी होती थी। रात के अँधेरे में मैं मन ही मन एक घरौंदा बनाती थी जिसमे निशा और सूरज रहेंगे। सूरज भी मुझे पसंद करता थे बस अंतर ये था कि उसमे हिम्मत थी मुझे स्वीकारने की और मैं कायर थी। मैं सच से भागना चाहती थी। जब आँखें बंद करती तो एक ओर मेरे माँ बाप दिखते और दूसरी ओर सूरज। मैं झट से आँखें खोल देती। वो जब भी कहता था "निशा मैं तुम्हे बहुत पसंद करता हूँ और तुम्ही से शादी करूँगा ", मैं निरुत्तर हो जाती थी। शब्द जैसे अपना रास्ता ही भूल गए हो। बस इतना ही कह पाती कि "तुम मेरे बहुत अच्छे दोस्त हो सूरज और वैसे भी अभी हमे सिर्फ अपनी पढ़ाई पर ध्यान देना चाहिए।"
हम दोनों ही अपने अपने क्षेत्र में अच्छा कर रहे थे और उम्मीद भी थी की अच्छी जगह नौकरी भी मिल जाएगी। माँ पिताजी लोगो के सामने अपनी इंजीनियर बिटिया का खूब बखान करते थे।
"बस यूँ समझिये शर्मा जी कि बिटिया इधर नौकरी पर लगी और उधर हमारी सारी परेशानी हल हुयी। अब इस किराये के मकान में मैं ज्यादा दिन नहीं रहूँगा।" , पिताजी बहुत गर्व से कहते। उनका ये सब कहना मुझे और ज्यादा दबाव में ले आता। मैं घबरा जाती और सूरज से दूर होने की कोशिश करने लगती पर वो था भी इतना जिददी जब तक बात नहीं कर लेता पीछा नहीं छोड़ता था और हार मान कर मुझे उससे बात करनी पड़ती।
वक़्त बीतता गया। हम अब अंतिम वर्ष में पहुँच गए थे। जी जान से मेहनत कर रहे थे अच्छी नौकरी के लिए। सूरज और मुझे दोनों को ही शहर की ही अच्छी कम्पनियो में नौकरी मिल गयी थी। हम बहुत खुश थे। उस दिन सूरज ने मुझसे कहा ,"निशा मैं आज भी तुम्हे ही प्यार करता हूँ क्या तुम मुझसे शादी करोगी?
अब मेरी परीक्षा की घड़ी थी। मैं उस दोराहे पर आ गयी थी जहाँ मुझे स्वयं नहीं पता था कि क्या करना है।
पर मैंने जवाब दिया ऐसा जवाब जिसके बाद मैंने स्वयं खुशियों के रास्ते बंद कर लिए।
मैंने कहा ,"सूरज मै तुमसे शादी नहीं कर सकती। ऐसा नहीं हैं कि मैं तुमसे प्यार नहीं करती। मैं तुमसे प्यार करती हूँ पर मैं तुमसे ज्यादा किसी और से करती हूँ। जानते हो कौन है वो ,वो मेरे माँ बाप हैं। उनके कई सपने हैं कई उम्मीदें हैं जो उन्होंने मुझसे लगा रखी हैं उन उम्मीदों की खातिर मैं ऐसे किसी बंधन में नहीं बंध सकती जिसमे मेरे प्रेम को विभाजित होना पड़े। तुम्हारी दुनिया में बहुत चमक है सूरज। लोग तुम्हे देखते हैं चाहते हैं पर निशा को तो तब याद किया जाता है जब लोग थक कर टूट जाते हैं उदास हो जाते हैं। मेरे माँ पिताजी ने बहुत कष्ट से मुझे पढ़ाया है, सिर्फ अपनी ख़ुशी के लिए मैं उनके अच्छे दिन की उम्मीद तोड़ सकती। मुझे माफ़ करो सूरज।" और सूरज कुछ नहीं बोला। वो चुपचाप चला गया। उस शाम को डूबता हुआ सूरज भी मुझे उसके ना होने का एहसाह दिला रहा था। शायद जो घरौंदा मैं बुनती थी वो बेबुनियाद था क्योंकि निशा और सूरज तो कभी एक साथ रह ही नहीं सकते। उनकी अपनी अलग अलग दुनिया हैं। पर मैं आज भी उसका उसी जगह इंतज़ार करती हूँ उसी बस स्टैंड पर जहाँ हम पहली बार मिले थें। मेरे जीवन का अस्तित्व सूरज से था कभी कभी उसका साथ ना होना एक अजीब सी चुभन दे जाता है। उसका ना होना कभी कभी बहुत खलता है। उम्र के चालीसवे पड़ाव पर आज कई उम्मीदों पर खरी उतर चुकी काबिल बिटिया अपनी ही कई उम्मीदें तोड़ चुकी है। उन बूढ़ी आखों की चमक और होंठो पर मुस्कान देखने के लिए।

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